Add To collaction

कंकाल-अध्याय -८७

मैंने भगवान् की ओर से मुँह मोड़कर मिट्टी के खिलौने में मन लगाया था। वे ही मेरी ओर देखकर, मुस्कुराते हुए त्याग का परिचय देकर चले गये और मैं कुछ टुकड़ों को, चीथड़ों को सम्हालने-सुलझाने में व्यस्त बैठा रहा।

किशोरी! सुना है कि सब छीन लेते हैं भगवान् मनुष्य से, ठीक उसी प्रकार जैसे पिता खिलवाड़ी लड़के के हाथ से खिलौना! जिससे वह पढ़ने-लिखने में मन लगाये। मैं अब यही समझता हूँ कि यह परमपिता का मेरी ओर संकेत है।

हो या न हो, पर मैं जानता हूँ कि उसमें क्षमा की क्षमता है, मेरे हृदय की प्यास-ओफ! कितनी भीषण है-वह अनन्त तृष्णा! संसार के कितने ही कीचड़ों पर लहराने वाली जल की पतली तहों में शूकरों की तरह लोट चुकी है! पर लोहार की तपाई हुई छुरी जैसे सान रखने के लिए बुझाई जाती हो, वैसे ही मेरी प्यास बुझकर भी तीखी होती गयी।

जो लोग पुनर्जन्म मानते हैं, जो लोग भगवान् को मानते हैं, वे पाप कर सकते हैं? नहीं, पर मैं देखता हूँ कि इन पर लम्बी-चौड़ी बातें करने वाले भी इससे मुक्त नहीं। मैं कितने जन्म लूँगा इस प्यास के लिए, मैं नहीं कह सकता। न भी लेना पड़ा, नहीं जानता! पर मैं विश्वास करने लगा हूँ कि भगवान् में क्षमा की क्षमता है।

मर्मव्यथा से व्याकुल होकर गोस्वामी कृष्णशरण से जब मैंने अपना सब समाचार सुनाया, तो उन्होंने बहुत देर तक चुप रहकर यही कहा-निरंजन, भगवान क्षमा करते हैं। मनुष्य भूलें करता है, इसका रहस्य है मनुष्य का परिमित ज्ञानाभास। सत्य इतना विराट् है कि हम क्षुद्र जीव व्यावहारिक रूप से उसे सम्पूर्ण ग्रहण करने में प्रायः असमर्थ प्रमाणित होते हैं। जिन्हें हम परम्परागत संस्कारों के प्रकाश में कलंकमय देखते हैं, वे ही शुद्ध ज्ञान में यदि सत्य ठहरें, तो मुझे आश्चर्य न होगा। तब भी मैं क्या करूँ यमुना के सहसा संघ से चले जाने पर नन्दो ने मुझसे कहा कि यमुना का मंगल से ब्याह होने वाला था। हरद्वार में मंगल ने उसके साथ विश्वासघात करके उसे छोड़ दिया। आज भला जब वही मंगल एक दूसरी औरत से ब्याह कर रहा है, तब वह क्यों न चली जाती मैं यमुना की दुर्दशा सुनकर काँप गया। मैं ही मंगल का दूसरा ब्याह कराने वाला हूँ। आह! मंगल का समाचार तो नन्दो ने सुना ही था, अब तुम्हारी भी कथा सुनकर मैं तो शंका करने लगा हूँ कि अनिच्छापूर्वक भी भारत-संघ की स्थापना में सहायक बनकर मैंने क्या किया-पुण्य या पाप प्राचीनकाल के इतने बड़े-बड़े संगठनों में जड़ता की दुर्बलता घुस गयी! फिर यह प्रयास कितने बल पर है वाह रे मनुष्य! तेरे विचार कितने निस्सबल हैं, कितने दुर्बल हैं! मैं भी जानता हूँ इसी को विचारने वाली एकान्त में! और तुमसे मैं केवल यही कहूँगा कि भगवान् पर विश्वास और प्रेम की मात्रा बढ़ाती रहो।

किशोरी! न्याय और दण्ड देने का ढकोसला तो मनुष्य भी कर सकता है; पर क्षमा में भगवान् की शक्ति है। उसकी सत्ता है, महत्ता है, सम्भव है कि इसीलिए सबसे क्षमा के लिए यह महाप्रलय करता हो।

तो किशोरी! उसी महाप्रलय की आशा में मैं भी किसी निर्जन कोने में जाता हूँ, बस-बस!'

पत्र पढ़कर किशोरी ने रख दिया। उसके दुर्बल श्वास उत्तेजित हो उठे, वह फूट-फूटकर रोने लगी।

गरमी के दिन थे। दस ही बजे पवन में ताप हो चला था। श्रीचन्द्र ने आकर कहा, पंखा खींचने के लिए दासी मिल गयी है, यहीं रहेगी, केवल खाना-कपड़ा लेगी।

पीछे खड़ी दो करुण आँखें घूँघट में झाँक रही थीं।

श्रीचन्द्र चले गये। दासी आयी, पास आकर किशोरी की खाट पकड़कर बैठ गयी। किशोरी ने आँसू पोंछते हुए उसकी ओर देखा-यमुना तारा थी।

   0
0 Comments